Friday, May 17"खबर जो असर करे"

भ्रष्टाचार के विरोध की पटकथा, केजरीवाल और परिवारवाद

– सुरेश हिंदुस्तानी

भारत एक मजबूत लोकतांत्रिक देश है। यह सभी जानते हैं कि भारत में जनता के लिए जनता का ही शासन है। जनता के शासन का सीधा तात्पर्य यही है कि जनता अपने बीच के किसी व्यक्ति को नायक बनाकर अपना प्रतिनिधि बनाती है। लोकतंत्र में जनता की पसंद और नापसन्द को ही महत्वपूर्ण माना जाता है, लेकिन आज हमारे देश में राजनीतिक दल अपने ही परिवार के कुछ लोगों को जबरदस्ती आगे करके नायक बनाने का खेल खेल रहीं हैं। यह खेल निश्चित रूप से लोकतंत्र को कमजोर करने वाला कहा जा सकता है। इस श्रेणी में एक या दो दल नहीं, कमोबेश हर राजनीतिक दल आज परिवारवाद की राह का अनुसरण करने के लिए अग्रसर हो रहा है। सवाल यह आता है कि आज नेता का बेटा या बेटी को ही विरासत सौंपने का चलन क्यों बढ़ रहा है, जबकि सारे राजनीतिक दल विशेषकर विपक्षी राजनीतिक दल लोकतंत्र को बचाने का नाराज बुलंद करने का सब्जबाग दिखा रहे हैं। अभी कुछ दिन पूर्व दिल्ली के रामलीला मैदान में विपक्षी राजनीतिक दलों ने लोकतंत्र बचाने के नाम पर एक रैली की, जिसमें परिवार को राजनीतिक विरासत सौंपने की ही राजनीति दिखाई दी। इसका तात्पर्य यही हो सकता है कि अब विपक्षी दल लोकतंत्र के बजाय परिवारवाद को ज्यादा महत्वपूर्ण मान रहे हैं।

लोकसभा चुनाव में सत्ता चाह की रास्ते तलाश करने वाला विपक्ष आज पूरी तरह से परिवारवाद की राजनीति को ही चरितार्थ करने की ओर अग्रसर होता दिखाई दे रहा है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की गिरफ्तारी के पश्चात विपक्षी राजनीतिक दलों की राजनीति परिवार को आगे लाने की कवायद करने वाली ही लग रही है। पहले कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, शिवसेना उद्धव ठाकरे और राष्ट्रीय जनता दल केवल अपने परिवार को ही आगे करके राजनीति करते रहे और आज भी कर रहे हैं, लेकिन अब इस दिशा में आम आदमी पार्टी और झारखंड मुक्ति मोर्चा भी शामिल हो गई है। मुख्यमंत्री केजरीवाल की पत्नी सुनीता केजरीवाल ने भी अब सक्रिय राजनीति में कदम रख दिया है। हालांकि वे जनता की सहानुभूति पाने के लिए अरविन्द केजरीवाल के राजनीतिक अस्तित्व को फिर से स्थापित करने का प्रयास करेंगी, लेकिन केजरीवाल पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों पर विपक्ष की ओर से कोई भी बोलने के लिए तैयार नहीं है।

जिस भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए आज से एक दशक पूर्व दिल्ली के रामलीला मैदान से पटकथा लिखी गई, आज वही रामलीला मैदान भ्रष्टाचार के आरोप लगने पर केजरीवाल को बचाने का गवाह बना। लोकतंत्र बचाने के नाम पर की गई इस रैली को किसी आभासी प्रहसन से कम नहीं कहा जा सकता। अगर केजरीवाल ने कुछ किया नहीं होता तो उसे न्यायालय से आरोप मुक्त करके छोड़ दिया जाता। पहले प्रवर्तन निदेशालय की हिरासत के बाद अब केजरीवाल न्यायिक हिरासत में दिल्ली की तिहाड़ जेल में हैं। ऐसे में यह भी स्पष्ट हो जाता है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल के पास अपने बचाव के लिए ठोस प्रमाण नहीं हैं।

यह बात सही है कि एक समय दिल्ली की जनता भ्रष्टाचार और वर्तमान राजनीतिक कार्यप्रणाली से बहुत त्रस्त हो गई थी, ऐसी स्थिति में जनता को केजरीवाल में एक नायक दिखाई दिया, जो जननायक बनने की श्रेणी में आ सकता था, लेकिन जब उन पर और उनके मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे, तब इस पटकथा की इबारत बदली हुई सी लगने लगी। अब आम आदमी पार्टी के नेता और राज्यसभा के सांसद संजय सिंह दो लाख के निजी मुचलके पर जेल से सशर्त बाहर आए तो उनका स्वागत ऐसे किया गया, जैसे वे आरोप मुक्त हो गए हों। आम आदमी पार्टी के इस प्रकार के चरित्र को देखकर यही कहा जा सकता है कि जो पार्टी राजनीति में बदलाव लाने का सपना दिखाकर मैदान में आई थी, आज वह भी समय के अनुसार बदल गई है। खैर… यहां परिवारवाद की बात हो रही है। संजय सिंह जेल से छूटने के बाद अरविन्द केजरीवाल की पत्नी सुनीता केजरीवाल से मिलने पहुंचे। यह वाकया निश्चित ही यह संकेत दे रहा है कि अब संभवतः सुनीता केजरीवाल दिल्ली में आम आदमी पार्टी के सपनों को पूरा करने वाली हैं।

यह बात एक दम प्रामाणिक रूप से कही जा सकती है कि भारतीय लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा परिवारवाद है, इसके बावजूद भी राजनीतिक दल अपने परिवार तक ही अपने दल को सीमित रखने की कवायद कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में यही कहा जा सकता है कि इन दलों को वास्तविक लोकतंत्र से कोई मतलब नहीं है। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने तो परिवारवाद की सीमाएं लांघ दी। उन्होंने बिना किसी राजनीतिक योग्यता के एक अनपढ़ पत्नी को राज्य की कमान सौंप दी। अब अपने पुत्रों को गद्दी सौंपने की तैयारी कर रहे हैं। इसी प्रकार दो बार लोकसभा के चुनावों में पराजय की स्थिति में पहुंचाने वाले विरासती पृष्ठभूमि के नेता राहुल गांधी भी परिवारवाद के ही परिचायक हैं।

आज भले ही कांग्रेस ने अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष बदल दिया हो, लेकिन वे भी राहुल गांधी को किनारे करने का साहस नहीं दिखा सकते। कांग्रेस के बारे में यही कहा जा सकता है कि वह आज भी परिवारवाद के चंगुल से बाहर नहीं निकल सकी है। कुछ ऐसा ही नहीं, बल्कि इससे ज्यादा परिवारवाद समाज़वादी पार्टी में दिखता है। मुलायम सिंह के परिवार के लगभग सभी सदस्य या तो विधायक और सांसद हैं या रह चुके हैं। बसपा नेता मायावती ने भी अपनी विरासत अपने परिवार को ही सौंपी है। ऐसे उदाहरण से क्षेत्रीय दल भी अछूते नहीं हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना उद्धव गुट पर परिवार कायम है तो नेशनल कान्फ्रेंस पर शेख अब्दुल्लाह का परिवार ही कमान संभाल रहा है। खास बात यह है कि यह सभी परिवार पार्टी के मुखिया ने ही स्थापित किए हैं। लोकतंत्र में ऐसी राजनीति नहीं होना चाहिए।

भारत में लोकतंत्र को बचाने के लिए परिवारवाद को राजनीति से अलग करने की जरूरत है, क्योंकि जहां परिवार को आगे बढ़ाने की राजनीति होगी, वहां लोकतंत्र के लिए कोई जगह ही नहीं बचेगी। लोकतंत्र जनता का होता है, जहां जनता को महत्व मिलेगा, वही तो लोकतंत्र है, और जहां परिवार को महत्व दिया जाता हो, वहां तानाशाह जैसी प्रवृत्ति जन्म लेती है। उनको इसका अहंकार भी हो सकता है कि हम तो सत्ता के लिए ही बने हैं और यही अहंकार भारत के लोकतंत्र को कमजोर करता है। इसलिए अब इस बात की बहुत आवश्यकता है कि भारत में लोकतंत्र को कायम करने की दिशा में ठोस कदम उठाए जाएं, नहीं तो जनता के शासन के स्थान पर परिवारवाद के सहारे तानाशाही का राजनीति कायम हो जाएगा।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)