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छत्तीसगढ़ की दीपावली: एक अलग संसार-एक अलग अनुभूति

– मुस्कान साहू

दीपावली का त्योहार ना केवल भारत बल्कि अन्य एशियाई देशों जैसे मलेशिया और सिंगापुर में भी मनाया जाता है। यह ‘बुराई पर अच्छाई की जीत’, ‘अशुद्धता पर पवित्रता’ तथा ‘अंधेरे पर प्रकाश की जीत’ के इर्द-गिर्द घूमता है। यह सबसे महत्वपूर्ण हिंदू त्योहारों में से एक है।

दीपावली का त्योहार ना केवल हिंदू धर्म में बल्कि सनातन से जुड़े सिख, जैन इत्यादि सभी मत-पंथों में मनाया जाता है। सिख धर्म जो कि इस दिन अपने छठे गुरु यानी श्रद्धेय हरगोविंद जी की रिहाई का जश्न मनाते हैं, इसे ‘बंदी छोड़ दिवस’ के रूप में भी जाना जाता है। वहीं, जैन धर्म में उनके अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर के निर्वाण या मोक्ष प्राप्त करने के अवसर पर इस दिन को दीपावली के रूप में मनाते हैं।

वास्तव में दिवाली का त्योहार ना केवल इन सभी मत, पंथ और धर्मों में अलग-अलग रूपों में नामों से मनाया जाता है बल्कि भारत में ही कई राज्य व जिले ऐसे हैं जिनमें यह अलग-अलग नामों तथा अलग-अलग रीति-रिवाजों के साथ मनाया जाता है। उदाहरण के लिए भारत के आदिवासी बहुल राज्य ‘छत्तीसगढ़ की दिवाली’ को इस दृष्टि से देखा जा सकता है। छत्तीसगढ़ को अनुसूचित जनजातियों या कहें ‘आदिवासियों’ का बसेरा कहा जाता है। यहां मुख्य रूप से आदिवासियों की ‘गोंड’ प्रजाति रहती है। इस प्रजाति का रहन-सहन, खान-पान पहनावा व इनके द्वारा मनाया जाने वाला त्योहार और उसके रीति-रिवाज ही उन्हें अन्य राज्यों में भिन्न बनाता है।

छत्तीसगढ़ में दीपावली को गोंड जाति के आदिवासी ‘देवरी त्योहार’ के रूप में धूमधाम से मनाते हैं । इस त्योहार में गोंड संस्कृति व ग्रामीण संदर्भ में एक-दूसरे के प्रति मजबूत जुड़ाव देखा जाता है। यह त्योहार हिंदी चंद्र कैलेंडर के अनुसार कार्तिक महीने के 15 वे दिन अमावस्या के दिन मनाया जाता है। इस अवसर पर भिन्न-भिन्न तरह के व्यंजन बनाए जाते हैं जैसे खाजा, पीडिया, पूरन, लड्डू, डेहरी, खुर्मी आदि।
महिलाएं एक विशेष प्रकार की लोकगीत जिसे सुआ गीत कहते हैं, गाती हैं तथा नृत्य भी करती हैं । सुवा का अर्थ होता है तोता जो रटी-रटाई बातों को बोलता है। इस गीत को गाने की एक शैली होती है। महिलाएं बांस की टोकरी को धान से भरकर उसके ऊपर मिट्टी से बने सुआ अर्थात तोता को सजा कर रंग लगाकर रखती हैं। महिलाएं न केवल तोते की मूर्ति को धान से भरी टोकरी में रखती हैं बल्कि मिट्टी से बने शिव और पार्वती की मूर्ति को भी स्थापित करती हैं ।

यह दिन ‘देवार का पर्व’ मनाने है। गौरा और गौरी का विवाह भी किया जाता है और महिलाएं चारों ओर वृत्ताकार स्थिति में सुआ गीत गाती एवं साथ में वे सामूहिक या एकल रूप में नाचती हैं। यह नृत्य देवार पर्व के दिन से ही शुरू हो जाता है और अगहन मास तक चलता है। नाचते वक्त महिलाओं की वेशभूषा एक समान होती है। नृत्य करते समय महिलाएं खासकर हरे रंग की साड़ियां पहनती हैं, क्योंकि इसे छत्तीसगढ़ के ग्राम्यजीवन में शुभ सूचक माना जाता है।

सुआ गीत हमेशा एक ही बोल से शुरू होता है और वह बोल कुछ इस प्रकार से शुरू होते हैं –
“तरीहरी नाना मोर नहरी नाना रे सुवा मोर…
इस बोल के साथ गीत शुरू होकर आगे तालियों के साथ बढ़ता है।
“तरिहारी नाना मोर नहरी नाना रे सुवा मोर,
तरिहरी ना मोरे ना।
ए दे ना रे सुवा मोर तरिहरी ना मोरे ना।
कोन सुवा बइठे मोर आमा के डारा म,
कोन सुवा उड़त हे अगास, ना रे सुवा मोर कोन सुवा उड़त हे,
“हरियर सुवा मोर पिवरा सुवा उड़त हेअगास।।
ए अगास ए सुवा रे मोर, तरिहरी ना मोर ना….
यहां इस अवसर पर गाए जानेवाले अन्य लोकगीत भी देखे जा सकते हैं –
चंदा के अजोरी म,
जुड़ लोगे रतिया,
ना रे सुवा बने लागे,
गोरी आउ धाम।
अगहन के ये,
जाड़ा ना रे सुवना,
ख़रही मंगावत हवे धान……
कहना होगा कि सुआ गीत में ना केवल प्रेम के गीत गाए जाते हैं बल्कि ठिठोली, बालकों की नोक-झोंक, भूत की गाथा भी गाई जाती है। महिलाएं गीत के माध्यम से अपने दर्द को भी बयां करती हैं। जैसे –
“पाइया मैं लागो चंदा -सूरज के रे सुवना
तिरिया जनम झन देबे,
तिरिया जनम मोर गउ के बरोबरी
स्थिर पठाउवे तैं,
अंकुरी मोरी मोरी घर लेपवाये रे सुवना

फिर नंद के मन नइ आए….इस तरह कुल मिलाकर यहां की परम्परा में दीपावली पर महिलाओं द्वारा तोते के माध्यम से अपनी मन की बात बताई जाती है। कह सकते हैं कि इस प्रकार यहां की समस्त महिलाओं के मन की व्यथा, तोता अर्थात सुआ उसके प्रिय तक पहुंचा देता है। इस गीत को मार्मिक गीत भी कहते हैं व कभी- कभी वियोग गीत भी कहते हैं। आदिवासियों का यह त्योहार दीपावली के दिन सुआ गीत से आरंभ होता है तथा शिव- पार्वती के विवाह के साथ संपन्न होता है। सुआ नृत्य अगहन मास तक चलते रहता है। इस प्रकार एक तरह से छत्तीसगढ़ में आप दीपावली मनाने एवं उसे अनुभव करने के एक अलग ही संसार में विचरण करते हैं।